हिन्दी साहित्य सम्मेलन : एक परिचय
जन्म और विकास
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने तथा हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि का व्यापक प्रचार करने के उद्देश्य से नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने वैशाख कृष्ण ७, संवत् १९६७, तदनुसार १ मई, १९१० ई० को एक बैठक में अखिल भारतीय स्तर पर एक साहित्य-सम्मेलन बुलाने का निश्चय किया था। निश्चयानुसार विक्रमी सं० १९६७, दिनांक १० अक्टूबर, सन् १९१० को महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का एक अधिवेशन सम्पन्न हुआ, जिसमें प्रत्येक प्रदेश के साहित्यकारों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया। सम्मेलन में सम्मिलित होनेवाले प्रतिनिधियों को उक्त सम्मेलन की पूर्ण सफलता ने बहुत प्रभावित किया। फलतः राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन का इस आशय का प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया कि इसी प्रकार के सम्मेलन प्रतिवर्ष विभिन्न स्थानों में किये जायें। यह भी निश्चय किया गया कि आगामी अधिवेशन प्रयाग में किया जाय। आगामी अधिवेशन तक के लिए ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ नाम की एक समिति बना दी गयी, जिसके प्रधानमन्त्री राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन नियुक्त किये गये। आगामी अधिवेशन प्रयाग में होना था और समिति के प्रधानमन्त्री प्रयाग के ही निवासी थे, इसीलिए एक वर्ष के लिए सम्मेलन का अस्थायी कार्यालय प्रयाग चला आया।
सम्मेलन का द्वितीय अधिवेशन संवत् १९६८ में पण्डित गोविन्दनारायण मिश्र के सभापतित्व में प्रयाग में सम्पन्न हुआ, जो हर प्रकार से पूर्ण सफल समझा गया। श्रद्धेय टण्डन जी की अपूर्व कार्यक्षमता और हिन्दी के प्रति उनकी अगाध निष्ठा का परिणाम यह हुआ कि सम्मेलन स्थायी हो गया और इसका कार्यालय भी स्थायी रूप से प्रयाग में आ गया।
इसके बाद से हिन्दी साहित्य सम्मेलन उत्तरोत्तर उन्नति करता हुआ अपने उद्देश्य की उस सीमा तक पहुँच गया, जिसकी पूर्ति के लिए इसका जन्म हुआ था। आज हिन्दी समस्त भारत की राष्ट्रभाषा के सिंहासन पर आरूढ़ होकर अपने उन्नायक हिन्दी साहित्य सम्मेलन की कीर्ति-पताका समुद्र पार तक फहरा रही है।
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हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने तथा हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि का व्यापक प्रचार करने के उद्देश्य से नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने वैशाख कृष्ण ७, संवत् १९६७, तदनुसार १ मई, १९१० ई० को एक बैठक में अखिल भारतीय स्तर पर एक साहित्य-सम्मेलन बुलाने का निश्चय किया था।